पर उस ऊपर वाले से कुछ मत माँगो।
वो जब देता है —
तो देता सब कुछ है,
पर कीमत बड़ी लेता है।
मैंने माँगी थी एक नौकरी,
एक बड़ी गाड़ी,
उसने दे दी —
पर ले लिया वो यारों के संग बैठने का वक्त,
वो बेफिक्री, वो हँसी,
जो बिना वजह भी आ जाती थी।
मैंने कहा — इश्क़ मुकम्मल कर दे,
उसने किया —
पर ले गया वो बेचैनी,
वो जुनून,
वो धड़कनों की तेज़ रफ़्तार,
जो बस नाम सुनते ही बढ़ जाती थी।
मैंने माँगा —
काम में खुद को साबित करना है,
करियर में सफल होना है —
उसने दिया,
पर ले लिया बच्चों संग बिताने के पल,
वो मासूम हँसी, वो आँखों की चमक।
फिर मैंने कहा —
दोनों चीज़ें दे दे,
काम भी, और घर का सुकून भी।
इस बार भी दिया उसने,
पर...
इस बार ले लिया मुझसे मुझे ही।
अब जब बैठता हूँ एकांत में,
तो मैं कौन हूं, क्यों जी रहा हूं,
क्या चाहता हूं, क्या मांगू अब,
कुछ समझ नहीं आता।
अब अगर माँगने को कुछ बचा है —
तो खुद को मांगना बचा है।
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